जेठ कब का बीता चूका ,आसाढ़ के इन दिनों में जबकी आसमान में घन घन मेघा होना चाहिए था और मोटी मोटी धार बरसानी चाहिए थी ,आसमान आग के गोले बरसा रहा है .धुप की तीखी मार ऐसी है की छाया भी छाया खोजती फिर रही है . कंक्रीट के जंगल बन गए हमारे शहरो में छाया रह भी कहाँ गयी .रेगिस्तान बढ़ रहा है और बड़ी-बड़ी नदियों में भी पानी की धार बहुत पतली होती जा रही है. एशिया की सबसे बड़ी नदियों में से एक गंगा की हालत दिन पर दिन ख़राब होती जा रही है.यमुना तो वैसे ही सरेंडर बोल चुकी है , यमुना की मृत्यु का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की अभी कुछ दिन पहले ही उसके पानी में अमोनिया और अन्य रसायन की मात्रा उस खतरनाक स्तर पर जा पहुची थी की दिल्ली के सभी जल शोधक संयंत्रों को बंद करना पड़ा था. मतलब की पानी इतना दुषीत हो चुका था की शोधन करने के बाद भी पीने लायक नहीं रहा. विकास की अंधी दौड़ में आदमी इतना तेज़ भाग रहा है की प्रकृती की कोए परवाह नहीं. पहाड़ खोद डाले , जंगल खेत बन गए और खेत रेत बनते जा रहे है. लेकिन आदमी शायद भूल चुका है की प्रकृती प्रतिशोध लेती है . ऐसा नहीं है की पानी नहीं बरसेगा लेकिन जब बरसेगा तो हमारे शहर उसे संभाल नहीं पाएगे. बेहद खफा प्रकृती विद्रोह को उतारू है लेकिन हम उसकी चेतावानिया सुनने को तैयार नहीं है . आने वाली पीढियों के लिए हम कैसा समय छोड़ जाने वाले है, किसी को इसकी फिक्र है ?